वे शब्दों के मोती, भावनाओं के धागों में गुंथे हुये, जो आये जुबां पर यूं ही, वही कविता है। जो सच्चे को सच्चा कहे, झूठे को झूठा, जो डिगे नहीं सच्चार्इ से, बस वही कविता है। जिसे न तोल सकता है धन, जिसे न डरा सकते हैं जन, जो छोड़े ना धर्म का संग, हाँ! वही कविता है। गिरिराज की तरह अडिग, गंगा की तरह पवित्र, विचारों का बहता झरना, बस यही कविता है।