Tuesday, September 24, 2013

ये दुनिया कब बदलेगी, ज़माना कब बदलेगा?

जीवन का भार ढोते हुये, मर-मर कर जीते लोग यहां,
भूख, बिमारी से त्रस्त हो मानवता कराहती जहाँ,
जहां हर सुबह कोर्इ जंग की एलान और रात मौत सी सन्नाटा।
जब भाग्यवाद के चक्कर में हम हाथ पर हाथ धर बैठे हों,
अपनी कायरता को जब हम  ईश्वर की मर्जी कहते हों,
ये दुनिया तब ना बदली थी, जमाना तब ना बदलेगा।।

बाजारवाद में हर चीज़ की, कीमत तय की जाती है।
जिस्मों की हाटें सजती हैं, रिश्तों के सौदे होते हैं,
आंसू और पानी में जब को फर्क ना मानी जाती हो,
न्याय की मंदिर में जब, अन्यायें बांटी जाती हो,
इंसानों की कीमत जब, मषीनों से कम आंकी जाती हो,
सैंकड़ो लोगों द्वारा जब, अरबों का शोषण होता हो,
तब लोगों के दिल से, बस एक आवाजें आती हैं
ये दुनिया अब ना बदलेगी, जमाना अब ना बदलेगा।।

हाड़तोड़ मेहनत पर भी जब, घर में बच्चे भूखे हों,
कानून और पुलिस से ही, जब जनता डरने लगती है,
दिल के किसी कोने में जब, चिनगारी सुलगने लगती है,
हर घर से धुआं सा उठता है, हर तरफ धुंध छा जाता है,
अबला जब चंडी बन करके  दुस्शासन से टकरायेंगी,
भाग्य छोड़ जब युवा अपनी मेहनत में विश्वास जगायेंगे,
मंदिर-मसिजद तज कर जब संघर्ष को पूजा मानेंगे,
ये दुनिया तब ही बदलेगी, ज़माना तब ही बदलेगा।।

                                                  सन्नी

Friday, February 8, 2013

एक रोटी के लिये


आज फिर एक मर गया, एक रोटी के बिना।
जिंदगी भर हाथ पसारा, एक रोटी के लिये।

सड़क के किनारे पड़ी है लाश उसकी,
दुसरी तरफ उँचे-आलीषान भवन में विराजमान है वह देवता,
लोग जिसकी मन्नत मांगते हैं, एक रोटी के लिये।

यह वही मंदिर है जहाँ लोग बड़ी गाडि़यों में हैं आते,
महंगे मिठार्इयों का ये लोग, देवता को प्रसाद चढ़ाते,
खुश हो देवता इनसे, झोलियां इनकी भरेगा,
और उसी दरवाजे पर, भूख से- आज फिर कोई मरेगा।

जनमते हैं ये यहीं पर, और यहीं पर ये हैं पलते,
देवता के सभी भक्त के आगे हाथ फैलाते हैं ये, एक रोटी के लिये।

मंदीर के सामने पड़ी वह लाश,
ऐसा मालुम होता है जैसे किसी ने कंकाल पर चमड़ी चढ़ा दी हो,
हाथ पैर पहले ही नहीं था उसके पास,
बस बैठे-बैठे कुछ धार्मिक लोगों के पुण्य कमाने का काम आता था।

दूर चौराहे से कोर्इ और ज़नाजा गुज़र रहा है,
हाथी, घोड़े, ऊंट आगे और पीछे सैकड़ों चाहने वालों की लड़ी है,
उसकी नाकों में घुंसी मक्खियाँ और अधखुली पथराई आंखें
मानवता से कह रही थीं,
जितनी खर्च तुम उस जनाजे में एक मुर्दे के लिये करते हो,
उसका एक हिस्सा से भी शायद मैं कुछ दिन और जी लेता, या यूं तड़पकर नहीं मरता।
उसकी खुली मुंह, मानो अब भी रोटी मांग रही हो।

उसके पास ही पंकित में बैठे,
लंगड़े, लूल्हे, बीमार , बूढ़े, बच्चे, महिलायें,
टकटकी लगाये मंदिर के दरवाजे पर,
हर बाहर निकलने वाले की तरफ हाथ फैलाते हुये,
एक रोटी के लिये,
या अपनी मौत के इंतजार में . . .

                                                                   - प्रभाकर कुमार 'सन्नी'