Friday, February 8, 2013

एक रोटी के लिये


आज फिर एक मर गया, एक रोटी के बिना।
जिंदगी भर हाथ पसारा, एक रोटी के लिये।

सड़क के किनारे पड़ी है लाश उसकी,
दुसरी तरफ उँचे-आलीषान भवन में विराजमान है वह देवता,
लोग जिसकी मन्नत मांगते हैं, एक रोटी के लिये।

यह वही मंदिर है जहाँ लोग बड़ी गाडि़यों में हैं आते,
महंगे मिठार्इयों का ये लोग, देवता को प्रसाद चढ़ाते,
खुश हो देवता इनसे, झोलियां इनकी भरेगा,
और उसी दरवाजे पर, भूख से- आज फिर कोई मरेगा।

जनमते हैं ये यहीं पर, और यहीं पर ये हैं पलते,
देवता के सभी भक्त के आगे हाथ फैलाते हैं ये, एक रोटी के लिये।

मंदीर के सामने पड़ी वह लाश,
ऐसा मालुम होता है जैसे किसी ने कंकाल पर चमड़ी चढ़ा दी हो,
हाथ पैर पहले ही नहीं था उसके पास,
बस बैठे-बैठे कुछ धार्मिक लोगों के पुण्य कमाने का काम आता था।

दूर चौराहे से कोर्इ और ज़नाजा गुज़र रहा है,
हाथी, घोड़े, ऊंट आगे और पीछे सैकड़ों चाहने वालों की लड़ी है,
उसकी नाकों में घुंसी मक्खियाँ और अधखुली पथराई आंखें
मानवता से कह रही थीं,
जितनी खर्च तुम उस जनाजे में एक मुर्दे के लिये करते हो,
उसका एक हिस्सा से भी शायद मैं कुछ दिन और जी लेता, या यूं तड़पकर नहीं मरता।
उसकी खुली मुंह, मानो अब भी रोटी मांग रही हो।

उसके पास ही पंकित में बैठे,
लंगड़े, लूल्हे, बीमार , बूढ़े, बच्चे, महिलायें,
टकटकी लगाये मंदिर के दरवाजे पर,
हर बाहर निकलने वाले की तरफ हाथ फैलाते हुये,
एक रोटी के लिये,
या अपनी मौत के इंतजार में . . .

                                                                   - प्रभाकर कुमार 'सन्नी'

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